व्यायाम का विधान-
व्यायाम करने से कार्य करने की शक्ति बढ़ती है, जठराग्नि या पाचकाग्नि प्रदीप्त होती है, मेदस् (स्थूलता) का क्षय होता है अर्थात् मोटापा घटता है, अंग-प्रत्यंग (मांसपेशियों ) स्पष्ट दिखलायी देते हैं और वे ठोस हो जाते हैं ।। १० ।।
वक्तव्य:
आष्टांगसंग्रह में इसकी परिभाषा इस प्रकार दी है—'शरीरायासजनक कर्म व्यायाम उच्यते । (अ.सं. ३।६२ )
अर्थात्
जिससे शरीर में थकावट पैदा हो, उसे 'व्यायाम' कहते हैं। इस परिभाषा से सभी शारीरिक परिश्रम व्यायाम कहे जा सकते हैं, किन्तु भगवान् पुनर्वसु के शब्दों में व्यायाम की परिभाषा इस प्रकार है—
'शरीरचेष्टा या चेष्टा स्थैर्वार्था बलवर्द्धिनी।
देहव्यायामसङ्ख्याता मात्रया तां समाचरेत् ॥ (च.सू. ७।३१ )
अर्थात्
जो भी शरीर की चेष्टा (कर्म) अपने मन को अच्छी लगे, जो शरीर को स्थिरता प्रदान करती हो और बल को बढ़ाती हो, उसे 'व्यायाम' कहते हैं। उसे मात्रा के अनुसार करना चाहिए। यह व्यायाम की परिभाषा सर्वोत्तम है। संसार में व्यायाम के अनेक प्रकार देखे जाते हैं, वे भी विभिन्न दृष्टियों से व्यायाम ही हैं। यथा-दण्ड, बैठक, शीर्षासन, कुश्ती, तैरना, हाकी, क्रिकेट आदि। इसी प्रसंग में आगे कहा जायेगा कि किनको व्यायाम नहीं करना चाहिए।
पहलवान बनने की इच्छा हो तो उत्तम (पौष्टिक) खान-पान की व्यवस्था होनी चाहिए। जो प्रत्येक नर-नारी घरेलू कार्य करते हैं उनसे भी थकावट आती ही है, किन्तु वास्तव में इनकी गणना व्यायाम के रूप में नहीं होती। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए शारीरिक श्रम अति आवश्यक है।
With Regard Ref: #आयुर्वेद #अष्टांगह्र्दय
अस्वीकरण: यह लेख केवल सूचनात्मक उद्देश्यों के लिए है और पेशेवर चिकित्सा सलाह को प्रतिस्थापित करने का उद्देश्य नहीं रखता। किसी भी नई जड़ी बूटी या उपचार पद्धति की शुरुआत से पहले हमेशा किसी योग्य स्वास्थ्य विशेषज्ञ से परामर्श करें।