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आचार्य आयुर्वेदा

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Hemant Kumar Mar 7, 2024

आयुर्वेद में मल का महत्व और प्रकार

मला मूत्रशकृत्स्वेदादयोऽपि च ॥ १३॥

मलों का वर्णन--- मूत्र, पुरीष तथा स्वेद (पसीना) आदि मल कहे जाते हैं ॥ १३ ॥

वक्तव्य--- भगवान् धन्वन्तरि की मान्यता है- 'दोषधातुमलमूलं हि शरीरम् (सु.सू. १५/३) अर्थात् वात आदि तीनों दोष, रस-रक्त आदि सातों धातु तथा मूत्र आदि शरीर के मल हो शरीर के मूल है अथवा यो समझिये कि यह शरीर दोष, धातु मल मय है ये ही इसके तत्त्व है। 
आगे वे पुनः इसी सम्बन्ध में कहते हैं—
त एते शरीरधारणाद् घाटव इत्युच्यन्ते। (मु.सू. १४/२०) 
अर्थात् 
ये रस, रक्त आदि शरीर को धारण करने से धातु कहे जाते हैं। धातु' शब्द 'दुधाञ् धारणपोषणयोः धातु से निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है- जो द्रव्य शरीर का धारण एवं पोषण करते हैं, उन्हें 'धातु' कहते हैं। यही कारण है कि सम अवस्था में स्थित 'वात' आदि दोषों को भी धातु कहा जाता है। जो शरीर को दूषित करते हैं, उन्हें 'दोष' कहा जाता है। शास्त्रकार दोष शब्द की व्याख्या इस प्रकार प्रस्तुत करते है-
'दूषयन्ति दूष्यन्ति वा दोषाः'। 
जो दूसरों को दूषित करते हैं अथवा स्वयं दूषित होते हैं, वे दोष कहें जाते हैं और जो दूषित होते हैं, वे दुष्य कहे जाते हैं। महर्षि पुनर्वसु के अनुसार बाल आदि दोष ही रस-रक्त आदि धातुओं को दूषित करते हैं। 
यथा-तत्र पयः शरीरदोषा वातपितश्लेष्माण, ते शरीर दुषयन्ति'। (च.शा. ४/३४) वात आदि दोष भी शास्त्रनिर्देश-विरुद्ध आहार-विहार के सेवन करने से ही दूषित होते हैं।

मल--- मूत्र आदि जो मल कहे गये हैं, वे भी दूष्य कहे जाते हैं। आगे चलकर वाग्भट ने अ. ह्र.शा. ३/६३ में रस आदि धातुओं के मलों का इस प्रकार वर्णन किया है। 
यथा- 
१. रस का मल-कफ 
२. रक्त का- पित्त
३. कान, नाक आदि छिद्रों में जो मल होता है, वह मांस का मत है।
४. मेद का- स्वेद (पसीना), क्योंकि मेदस्वी पुरुष के पसीने से मेदस की जैसी दुर्गन्ध आती है। 
५. अस्थियों के मल नख तथा रोम, क्योंकि अस्थिसार पुरुष के शरीर में रोम-केश खूब होते हैं। 
६. मज्जा का मल त्वचागत स्नेह तथा नेत्र एवंम का स्नेह है। मज्जासार पुरुष का शरीर चिकना रहता है और जिसके शरीर में मज्जा की कमी रहती है, उसकी त्वचा रूखी होती है,
तथा
७. शुक्र का मल है- ओजस।

 साभार:- अष्टांगह्र्दय सूत्रस्थानम पृष्ठ-११, १२

अष्टांगह्र्दय ( आयुर्वेद की महत्वपूर्ण पुस्तक)

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