त्रिधा विपाको द्रव्यस्य स्वादुम्लकटुकात्मकः ॥ १७ ॥
विपाक का वर्णन--- भले ही कोई द्रव्य किती रस से युक्त क्यों न हो, उसका विपाक तीन प्रकार का होता है-
१.मधुर
२. अम्ल
३.कटु ॥१७॥
वक्तव्य--- प्रायः सभी प्रकार के रस वाले द्रव्यों का भोजन के पाचनकाल के बाद कार्यरूप में जिसका अनुमान द्वारा निर्णय किया जा सकता है, वह रस जठराग्नि द्वारा पाक हो जाने पर उपर्युक्त तीन प्रकार का पाया जाता है। यथा-मधुर तथा लवण रस वाले द्रव्यों का मधुर, अम्ल रस वाले द्रव्यों का अम्ल और तिक्त, कटु, कषाय रस वाले द्रव्यों का कटु विपाक होता है। इसी विषय को महर्षि वाग्भट आगे अ.हृ.सू. ९/२० में कहेंगे। चरक ने उक्त विषय को अपनी संहिता में इस प्रकार से दिया है
'रसो ' ' ' ' च्चोपलभ्यते ॥ (च.सू. २६/६६)
अर्थात
रसों का भिन्न-भिन्न ज्ञान जीभ के साथ स्पर्श होने पर होता है और विपाक का ज्ञान कर्म की समाप्ति होने पर होता है। आशय यह है कि विपाक का ज्ञान आहार के पचने पर दोषों एवं धातुओं की वृद्धि अथवा क्षीणता रूपी लक्षणों से जाना जाता है और बीर्य का ज्ञान जीन के स्पर्श से लेकर शरीर में रहने तक होता रहता है।
निष्कर्ष--- रस का ज्ञान जीभ के स्पर्श से, विपाक का ज्ञान उसके कार्य को देखकर और वीर्य का ज्ञान प्रत्यक्ष तथा अनुमान दोनों से होता है। इनके आगे च.मू. २६/६७-६८ इन दो श्लोकों का भी परिशीलन इस प्रसंग में कर लेना चाहिए, जो विषय को स्पष्ट करने में उपकारक है। इस विषय के विशेष विवेचन के लिए सु.सु. ४० का अध्ययन करें।
शार्ङ्गधराचार्य ने विपाक का परिचय इस प्रकार दिया है— 'जाठरेणाग्निना योगाद् यदुदेति रसान्तरम्। रमानां परिणामान्ते स विपाक इति स्मृतः ॥ (शा.पू.खं.द्वि. ३३) अर्थात् मधुर आदि रसों का शरीर पर तात्कालिक प्रभाव पड़ जाने के बाद जठराग्नि के साथ संयोग होने के अनन्तर जो दूसरे रस की उत्पत्ति होती है, वह 'विपाक' कहा जाता है। आयुर्वेद शास्त्र में रस गुण वीर्य विपाक का विपुल साहित्य है, फिर भी आप देखें—यह 'सम्यक् विपाक' हुआ है या 'मिथ्या विपाक', तभी आप ठीक निष्कर्ष पर पहुँच पायेंगे। फिर भी आप निम्न सन्दर्भों का अवलोकन अवश्य करें च.सू. २६/५७-५८। च.सू. २६/६१-६२। सु.सू. ४०/१०-१२ च.चि. १५/९-११। शा.प्र.ख. ६/१-२।
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